
संजीव खन्ना ने भारत के 51वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली, तो कहा गया कि वे “अपने काम से काम रखने वाले” व्यक्ति हैं। इससे पहले के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की तरह कैमरों के सामने नहीं आए, पर उनके फ़ैसलों की गूंज दूर तक सुनाई दी।
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13 मई 2025 को उनके रिटायर होने तक न तो कोई बड़ा सार्वजनिक भाषण सामने आया और न ही मीडिया में कोई प्रचार-प्रियता। फिर भी वे सुर्खियों में रहे—क्योंकि उनके कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट ने संवेदनशील मामलों में कई महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए।
मंदिर-मस्जिद विवाद पर ऐतिहासिक अंतरिम आदेश
संभल की जामा मस्जिद और अजमेर शरीफ़ दरगाह जैसे मामलों पर बढ़ते तनाव के बीच, सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2024 में एक महत्वपूर्ण अंतरिम आदेश पारित किया—जिसमें कहा गया कि जब तक सुप्रीम कोर्ट अंतिम फ़ैसला नहीं सुनाता, तब तक देश की कोई अदालत मंदिर-मस्जिद विवादों में सुनवाई नहीं कर सकेगी। यह निर्णय ऐसे समय आया जब देश भर में 12 से अधिक मस्जिदों पर दावे किए जा चुके थे।
वक्फ संशोधन पर कोर्ट की त्वरित कार्रवाई
अप्रैल 2025 में वक्फ कानून में किए गए संशोधनों—जैसे गैर-मुस्लिमों की वक्फ बोर्डों में नियुक्ति—को लेकर भारी विवाद हुआ। संजीव खन्ना की पीठ ने सरकार से लिखित आश्वासन लिया कि ये प्रावधान लागू नहीं होंगे। इससे कोर्ट की संवेदनशीलता और निष्पक्षता स्पष्ट हुई।
जस्टिस यशवंत वर्मा कैश केस: न्यायपालिका की छवि पर लगा दाग
मार्च 2025 में दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर से भारी नकदी मिलने की ख़बर से सनसनी फैल गई। जस्टिस खन्ना ने सुप्रीम कोर्ट की ओर से रिपोर्ट जारी कर पारदर्शिता की मिसाल कायम की। हालाँकि इन-हाउस जांच रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है।
पारदर्शिता की पहल: जजों की संपत्ति सार्वजनिक
1 अप्रैल 2025 को हुई सुप्रीम कोर्ट की फुल कोर्ट मीटिंग में यह निर्णय लिया गया कि सभी जजों की संपत्ति की घोषणा सार्वजनिक की जाएगी। यह फैसला वर्षों पुरानी पारदर्शिता की माँग की दिशा में एक ऐतिहासिक क़दम माना गया।
आलोचना और विवाद भी बने हिस्से
बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने उन्हें देश में “धार्मिक गृहयुद्ध” के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया, जिससे राजनीतिक भूचाल आ गया। सुप्रीम कोर्ट को सोशल मीडिया पर ट्रोल भी किया गया। वहीं, संवैधानिक विशेषज्ञ गौतम भाटिया ने फैसलों में तर्कों की कमी पर सवाल उठाया।
क्या कहना है आशीष शर्मा ‘ऋषि’ का:
साहब जस्टिस संजीव खन्ना का कार्यकाल, इतिहास की फाइलों में उनकी छाप साफ़ दिखती है। जब लोग कह रहे थे – “अरे! ये तो बोले ही नहीं,”वहीं कानून की किताबें चुपचाप पलटी जा रही थीं।
जिन्हें लग रहा था कि शो-बाज़ी से ही न्याय होता है, उन्होंने शायद ये नहीं देखा कि:
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उपासना स्थल पर अंतरिम विराम देना आग पर पानी डालने जैसा था — जहाँ बाकी लोग पेट्रोल लेकर दौड़ रहे थे।
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वक़्फ़ विवाद पर सुनवाई शुरू होते ही सॉलिसिटर जनरल की बेचैनी बता रही थी — “मामला गंभीर है।”
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और यशवंत वर्मा केस?
एक सुप्रीम कोर्ट जज ने जब रिपोर्ट सार्वजनिक की, तो जजों की “दिव्यता” पर बहस शुरू हुई।
पारदर्शिता मंदिर की नहीं, मन की होनी चाहिए।
लेकिन…
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रिपोर्ट अभी भी पब्लिक नहीं हुई।
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फैसलों में कारण नहीं दिए गए – “जजमेंट है, तर्क नहीं”
क्या खामोशी से लिया गया फैसला उस शोरगुल वाले ‘लोकतांत्रिक विमर्श’ से ज़्यादा ताक़तवर होता है?
या फिर,
यह खामोशी वही है जो भविष्य के किसी चीफ़ जस्टिस के लिए शून्य छोड़ जाती है — भरने के लिए, बदलने के लिए?
और अंत में…जब जजों की संपत्ति सार्वजनिक करने की बात आई — सुप्रीम कोर्ट आख़िरकार अपने ही ऊपर सुप्रीम हो गया।
जस्टिस खन्ना ने बहुत कुछ किया, कम कहा। पर जो नहीं कहा गया, वो भी कभी न कभी कानून का इतिहास कहेगा —
“यहाँ एक न्यायाधीश था जो बोलता कम था, पर जब बोलता था… तो कोर्ट में सन्नाटा छा जाता था।”
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